उमस भरी दोपहरी में सुंदर, सादे, सूती बगरु की ठंडक !
राजस्थान की भूमि मुपानी ग़ल वास्तुकला और हिंदू राजपूत संवेदनाओं का एक संयोजन है।वहाँ की शुष्क एवम् बंजर ज़मीन में भले ही की कमी हो लेकिन वहाँ के लोगों में रेगिस्तानी मज़बूती की कोई कमी नहीं है। धार्मिक विविधता और कठोर मौसम के इस संगम में, सपने देखने वाले भी हैं। ऐसे ही एक व्यक्ति हैं जयपुर के राम किशोर डेरवाला। एक राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता और पद्मश्री से नवाजे जाने वाले, वह राजस्थान के ब्लाक प्रिंटिंग आर्ट के पारम्परिक शिल्प में अपने अटूट प्रेम और विश्वास के साथ अग्रसर हैं।
जब मैंने उनसे बात की , तब मैं एक कलाकार की सादगी से काफ़ी प्रभावित हुई जो अप्राकृतिक कपड़ों और मशीन मुद्रित कारखाने के कपड़ों की तेज़ी से बढ़ती व्यावसायिक दुनिया से अनजान था। उन्होंने मुझे अपनी विश्वास और प्रेम की कहानी बतायी और साथ ही शिल्पकार के रूप में अपनी यात्रा के बारे में बताया। उन्हें पूरा यक़ीन था की उनकी अगली पीढ़ियाँ भी ब्लाक प्रिंटिंग की इस परम्परा का पालन करेंगी। उनका ये विश्वास देखकर मैं चकित थी। ब्लाक प्रिंटिंग के साथ उनका विश्वास और एक दिव्य सम्बंध था जो कि उनके अनुसार शाश्वत रहेगा। जीवन के चक्र की तरह ही यह हमेशा की तरह जारी रहेगा। उन्होंने मुझे आत्मविश्वास और ज़बरदस्त धैर्य के साथ बताया की यह समय के साथ और बेहतर होगा।
प्रसाद बिदापा भी एक स्वप्न देखने वाले हैं और साथ ही आस्तिक भी। उनके साथ हर बातचीत में कला और शिल्प के प्रति उनके जुनून को महसूस कर सकते हैं। उन्होंने बैंगलोर में अपने संस्थान में डेरवाला के संग्रह का प्रदर्शन किया। मेरा सौभाग्य था की मुझे उन मॉडल्ज़ पर रंगों, कपड़ों और प्रिंटों की सारणी देखने को मिली, जिन्होंने महान भारतीय कला और शिल्प के सार के साथ मंच को धार दी। प्रसाद एक उत्साही शिल्प योद्धा हैं, जो चीज़ उन्हें बाक़ियों से अलग करती है, अपने सरल व्यक्तित्व से दिल चुरा लेते हैं और साथ ही साथ हमारे देश के कई अनसुने शिल्पकार को एक मंच प्रदान करते हैं। मैं विसमय और प्रशंसा में बैठकर तमाशा देख रही थी और महसूस कर रही थी की भारतीय कला और शिल्प के बिना मेरे कपड़ों के संग्रह की कल्पना करना भी नामुमकिन है। यह मेरी जड़ें हैं।
जैसा कि मैंने सफ़ेद बगरू प्रिंटेड चन्देरी पर सफ़ेद कपड़े पहने हैं , मेरी साड़ी के बॉर्डर पर सोने की धार है। मैं जानती हूँ कि इसने भारत के धार्मिक विभाजन की संकीर्ण सीमाओं को पार कर लिया है। ब्लाक बनाने की यह कला राजस्थान के चिपास द्वारा बनायी गयी है। वे मुस्लिम समुदाय हैं जो ब्लाक बनाने में मास्टर कारीगर हैं। हिंदू प्राकृतिक रंगो को सरस्वती नदी के पानी के साथ मिलाकर बनाते हैं। और अंत में जो बनता है वो ऐसा कपड़ा है जो दो समुदायों की दिव्यता और लचीलेपन को दर्शाता है, जो बहादुरी से प्रेरित होता है।
राजस्थान की यात्रा हर सर्दियों में एक वार्षिक अनुशठान की तरह की जाती है। और प्रत्येक यात्रा मुझे अलग अलग तरीक़ों से हर बार छूती है। जैसे ही क़िलों पर सूर्य अस्त होता है, मैं आराम से बैठकर अज्ञात रूप से सुकून के साथ आँहें भरती हूँ। लुप्त होती किरणों की सुनहरी रोशनी अपने रहस्य को उन दीवारों पर उकेरती हैं जिन्मे कई कहानियाँ अनकही हैं। मुझे पता है कि हम कला और संस्कृति के एक ज्वालामुखी पर बैठे हैं, जिसने अभी तक इसका शिखर नहीं देखा है। जैसे ही उस गुलाबी शहर के हर घर में रोशनी बंद होती है, एक कलाकार अपने कपड़े के कैन्वस पर जादू पैदा करने के साथ पैदा होता है, जिसे उम्मीद है कि दुनिया उसके काम को स्वीकार करेगी और साथ ही उससे होने वाली आमदनी उसे अपना जुनून पूरा करने के लिए बहादुरी देगी।
शिल्पों का समर्थन करने के मेरे लघु तरीक़े में, बहुत ही सजगता से, मैंने कभी किसी कलाकार के साथ भाव तोल ( ख़रीद फ़रोख़्त) नहीं किया। मेरी आत्मा रोती है क्यूँकि मैं जानती हूँ कि मैं उस ऊर्जा को कभी उतनी गहरायी से नहीं समझ सकती जो मास्टरपीस बनाने में चली गयी।
जब मैं अपनी राम किशोर डेरेवाला साड़ी पहनकर निकली, मुझे सफ़ेद पोशाक में सुहावनी हवा का एहसास हुआ , जिसने मुझे अपनी प्राचीन रोशनी से ढाँक दिया। मैं जानती हूँ की कपड़े की बारीकी और उसे पहनने के प्रति मेरी प्रतिबद्धता काफ़ी लोगों को आकर्षित करती है। यह क्षण मायने रखता है क्यूँकि यह अब मेरी अनंत काल है।कल की अवधारणा अज्ञात है और शिल्प के लिए मेरा यह युद्ध हमेशा के लिए जारी रहेगा।
गरमियों में चलने वाली शुष्क हवाएँ इस निरंतर परिवर्तन नामक बदलाव की याद दिलाती हैं। मौसम की तरह ही फ़ैशन भी बदलता है लेकिन शिल्प स्थिर रहता है।