बासु चैटर्जी
बासु चैटर्जी ने अपने जीवन काल में इतनी विशाल प्रदर्शनों की फिहरिस्त हासिल की है कि उनका उल्लेखन करना आसान नहीं।
जिस प्रकार से उन्होंने जीवन की रोज़मर्रा की स्तिथियों को बॉलीवुड पे झलकाया है वह इतनी रोमांचक और हृदय को छू लेने वाली बन पड़ी हैं के आज भी वह उतनी ही उमदा और समकालीन प्रतीत होती हैं।
इसी के साथ उन्होंने स्त्री पात्रों को भी बहुत ही रोमांचक रूप में प्रस्तुत किया। जब “फ़ेमिनिज़म” या “ईक्वल राइट्स” जैसे विचारों की इतनी प्रवृति भी नहीं थी उन्होंने इस तरह के स्वभाव को बहुत ही हलके और नाज़ुक तरह से दर्शाया। उनका निर्देशन का तजुर्बा इसको इतना स्वाभाविक बना देता था की उसमें किसी भी प्रकार के विद्रोह की बू नहीं आती थी मगर फिर भी वह बहुत प्रभावशाली ढंग से इसका प्रचार कर पाईं।
आइए उनकी कुछ चुनिंदा नायिकाओं से मिले और जाने। आज से ४३ साल पहले उन्होंने “स्वामी” जैसी फ़िल्म को पर्दे पर दर्शाया।यह ज़रूर है की इसकी प्रभावशाली कहानी भी हिंदी की प्रख्यात लेखिका मनु भंडारी जी की थी मगर एक पुरुष को उसे समझना और उससे प्रेरित हो उसे दर्शकों तक पहुँचाना सराहनीय है । यह उनकी एक और बहुत बड़ी खूबी थी के वह फ़िल्म के व्यावसायिक पहलू को ना देखते हुए भी हमेशा अपने चाहने वालों तक आसानी से पहुँच पाए। शायद फ़िल्म बनाने की अर्थव्यवस्था का उन्हें बेहतरीन ज्ञान था और इसी कारण वह स्मॉल बजेट फ़िल्म्ज़ के मुख्य खिलाड़ी रहे हैं। इसी के साथ उन्होंने स्त्री पात्रों को भी बहुत ही रोमांचक रूप में प्रस्तुत किया। जब “फ़ेमिनिज़म” या “ईक्वल राइट्स” जैसे विचारों की इतनी प्रवृति भी नहीं थी उन्होंने इस तरह के स्वभाव को बहुत ही हलके और नाज़ुक तरह से दर्शाया। उनका निर्देशन का तजुर्बा इसको इतना स्वाभाविक बना देता था की उसमें किसी भी प्रकार के विद्रोह की बू नहीं आती थी मगर फिर भी वह बहुत प्रभावशाली ढंग से इसका प्रचार कर पाईं।
“स्वामी” की नायिका सौदामिनी ऊपरी झलक में नकचढ़ी दिखते हुए भी बहुत बखूबी से अपने आत्मसम्मान के लिए हमेशा प्रेरित रहती है । वह किसी भी परिस्थिति में अपने को झुकता हुआ नहीं पाना चाहती । मगर जब वह अपने पति का संतुलन और सहनशीलता को देखती है तो अपने में एक ठहराव को खोजते हुए अपने को बदलने की कोशिश कर आगे बढ़ने की समझ भी रखती है । यह संतुलन जो सही और ग़लत को भापने की क्षमता रखता है बहुत ज़रूरी है । यह उन समय में दर्शाना और आज तक उसका उतना ही महत्वपूर्ण रहना उनके समाज की परख को दर्शाता है। यह भी उल्लेखनीय है की उन्होंने यह भूमिका एक बहुत ही प्रतिभाशाली अभिनेत्री शबाना आज़मी को चुन इसे और भी प्रभावशाली बनाया।
“रजनीगंधा” उनकी दूसरी फ़िल्म है जो मनु भंडारी की ही कहानी पर आधारित है । इसकी नायिका १९७४ में भी अपने जीवन साथी को खुद चुनती है और अपने मन की विचलित स्तिथि को बिना किसी सामाजिक भार की फ़िकर करते हुए एक आत्मनिर्भर औरत के रूप में बखूबी खेलती है। दर्शकों को अपनी स्तिथि से प्रेरित कर और उनकी सहानुभूति हासिल कर वह बहुत ही सहज ढंग से अपने दो पुरुष मित्रों में से एक को चुनती है । यह फ़िल्म बहुत ही सहज और सरल रूप में से इस विडम्बना को दिखा इसके असामाजिक टिप्पणी के पहलू को नकारती है। यह सरलता ही उनकी फ़िल्मों की शक्ति है और यही कारण है कि उन्होंने अपने अलग ही प्रकार के दर्शकों की श्रेणी बनायी और ख्याति प्राप्त कर धीरे धीरे वह मुख्यधारा सिनेमा में प्रवेश कर गए।
तीसरा पात्र जो बेहद द्रिडता के साथ अपने आत्मविश्वास को क़ायम रखता है वो है मँझली बहु का फ़िल्म “अपने पराए” में। यह बंगाल के एक सामूहिक परिवार की कहानी है जहां पर मुख्य पात्र का पति पूरी तरह से अपने को अपने व्यवसाय में स्थिर ना कर पाने की वजह से परिवार में अपनी जगह स्थापित नहीं कर पाता है । इसका असर उसकी बीवी के आत्मसम्मान को भी ठेस पहुँचाता है और परिवार में दरार डालता है । मगर इस स्त्री चरित्र की जो जद्दोजहद है वह बहुत ही सराहनीय रूप में इस कहानी का मूल है । वह किस तरह से अपने परिवार के प्रति निष्ठा, उनके सम्मान , उनके लिए उसका कार्यरत होने और इस सब के साथ भी अपने मनोबल और आत्मनिर्भरता को अपनाती है यह देख कर समाज में हर स्त्री की रोज़ की कश्मकश बेहद प्रभावशाली तरीक़े से सामने आती है ।
यह सभी स्त्री चरित्र बेहद जटिल और मिश्रित हैं जो फ़िल्म की दुनिया में काफ़ी चुनिंदा एवं अधृतिय हैं। मनुष्य की हर भावना को बासु दा ने बहुत ही बारीकी से समझा और दर्शाया है मगर औरत को दर्शाने में जो उन्होंने प्रतिष्ठा क़ायम की है वह बहुत हद तक एक नयी विचारधारा का प्रचलन बनाने में कामयाब हुई ।
बेहद प्रेम और अतुलनीय आदर सहित यह एक छोटी सी भेंट उनके नाम ।
— मनीष सक्सेना